आदिवासी साहित्य और “पेनल्टी कॉर्नर” की कहानियों में चित्रित समस्याएँ
Keywords:
जन समुदाय, वनवासी, मूल निवासी, जंगलों-पहाड़ों में जीवन यापनAbstract
‘आदिवासी’ शब्द ऐसे जन समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है, जो इस धरती का मूल निवासी है। यह आज भी घने जंगलों, दुर्गम पर्वतों तथा घाटियों में निवास करने की अभिशप्तता झेल रहा है। धरती का मूल निवासी होने के कारण ही विश्व के सभी देशों में आदिवासी समूह पाए जाते हैं। हमारे देश में आदिवासियों को गिरीजन, वनवासी, मूल निवासी, अनुसूचित जनजाति आदि कई नामों से जाना जाता है। कोई इन्हें जंगली भी कहता है। वास्तविकता यह है कि जिसने आदिवासियों को जिस दृष्टि से जिस रूप में देखा है, उसी नाम से उन्हें पुकारा है। आदिवासी शब्द का अर्थ किसी विशिष्ट भू-प्रदेश में मूल रूप में निवास करनेवाला इस प्रकार होता है। आदिवासी शब्द के बारे में नालंदा विशाल शब्दसागर में कहा गया है कि, “किसी देश या प्रांत के वे निवासी जो बहुत पहले से वहाँ रहते आए हैं और उनके बाद अन्य लोग वहाँ आकर बसे हो ऐसे आदिम निवासी”[1] स्पष्ट है कि आदिवासी इस देश के मूल निवासी हैं। शायद इसी कारण आदिवासी यहाँ की जल, जंगल, जमीन पर अपना पहला हक मानते हैं। ‘आदिवासी’ के स्वरूप को स्पष्ट करने का अनेक विद्वानों ने प्रयास किया है। डॉ.विनायक तुमराम अपने ‘आदिवासी कौन?’ लेख में लिखते हैं कि - “वर्तमान स्थिति में ‘आदिवासी’ शब्द का प्रयोग विशिष्ट पर्यावरण में रहने वाले, विशिष्ट भाषा बोलने वाले, विशिष्ट जीवन पद्धति तथा परंपराओं से सजे और सदियों से जंगलों-पहाड़ों में जीवन यापन करते हुए अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संभाल कर रखने वाले मानव-समूह का परिचय कर देने के लिए किया जाता है।”[2] कहना सही होगा कि, सदियों से जंगलों और पहाड़ों पर रहनेवाला तथा अपनी परंपरा, संस्कृति, जीवन पद्धति, भाषा की रक्षा करनेवाले समूह के रूप में आदिवासी की पहचान है। आदिवासी साहित्य की यह विशेषता रही है कि, वह व्यष्टि को नहीं बल्कि समष्टि को महत्व देता है। आदिवासी साहित्य में व्यक्तिगत सुख- दुःख के लिए कोई जगह नहीं है। आदिवासी साहित्य में सामूहिक अभिव्यक्ति और विविध कला रूपों के आविष्कार को महत्वपूर्ण स्थान रहता है। वंदना टेटे जी के अनुसार “आदिवासी विश्व का साहित्य सामूहिक अभिव्यक्ति और कला रूपों की एक अविभाज्य और संयुक्त इकाई के बतौर सत्ता के किसी भी संरचना और अवधारणाओं की पैरवी नहीं करता । वह किसी व्यक्ति एवं सत्ता की बजाय समूची समष्टि के प्रति अपनी जबाबदेही अभिव्यक्त करता है।”[3] स्पष्ट है कि आदिवासी साहित्य सामूहिक अभिव्यक्ति और कला रूपों की एक अविभाज्य और संयुक्त इकाई का रूप है। वह एक व्यक्ति या सत्ता की बजाय पूरे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाता है।