इक्कीसवीं सदी का किन्नर साहित्य और सामाजिक न्याय
Keywords:
किन्नर, kinnar, साहित्य, transgender, literartureAbstract
पाणिनी कृत ‘अष्टाध्यायी’के‘खिल भाग’ में लिंगानुशासन में प्राप्त होता है कि स्त्री-पुरुष एवं नपुंसक में क्या भेद है-स्तन केशवती स्त्री स्याल्लोमशः पुरुषः स्मृतः|
उभ्योरंतरं यच्च तदभावे नपुन्सकम||
अर्थात वक्ष और केशवाली को स्त्री रोएँ वाले को पुरुष कहा गया है तथा जिसमें इन दोनों का अभाव हो वह नपुंसक अर्थात किन्नर कहलाता है| इसी प्रकार किन्नरों की भक्ति को लेकर तुलसीदास ने रामचरितमानस में भी लिखा गया है-पुरुष नपुंसक नारि व जीव चराचर कोइ|
सर्व भाव भज कपट तजि मोहिं परम प्रिय सोइ||
इस चराचर जगत का कोई भी जीव चाहे वह स्त्री,पुरुष,नपुंसक,देव,दानव-मानव कोई भी हो यदि वह सम्पूर्ण कपट को त्यागकर मुझे भजता है तो वह मुझे प्रिय है|‘हिजड़ा’ शब्द की व्युत्पत्ति अरबी के‘हिज्र’शब्द से हुई है,यह उर्दू भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है एक कबीले को छोड़ना| प्राचीन जैन और बौद्ध साहित्य में भी किन्नर अथवा नपुंसक का पृथक्करण किया गया है| रामचरितमानस में भी किन्नरों का उल्लेख मिलता है| वनवास जाते समय श्रीराम अपने पीछे आये छोटे भाइयों सहित सभी स्त्री एवं पुरुषों को मार्ग से वापस लौट जाने के लिए कहते हैं,आदेश का पालन करते हुए सभी स्त्री एवं पुरुष वापस अयोध्या लौट आते हैं,किन्तु किन्नर वापस नहीं लौटते| चौदह वर्ष बाद वनवास से वापस लौटते समय श्रीराम ने उनसे वहाँ रुके रहने का कारण पूछा,तब श्रीराम के कथन को किन्नरों ने स्पष्ट किया कि प्रभु आपने नर और नारी को वापस जाने की अनुमतिदी थी,किन्तु हमारे संबंध में कोई आदेश नहीं किया था| इसका उल्लेख ‘किन्नरकथा’ उपन्यास के आरम्भ में महेन्द्र भीष्म ने भी किया है| स्त्री-पुरुष के साथ-साथ नपुंसक के उल्लेख से ही यह स्पष्ट है कि रामायण काल में किन्नर वर्ग की विशेष उपस्थिति रही है| महाभारत में एक किन्नर के रूप में शिखंडी तथा वृहन्नला(अर्जुन) का उल्लेख भी मिलता है| अर्जुन ने शिखंडी को ढाल बनाकर ही भीष्म पितामह का वध करने में सफलता हासिल की थी|